मंजुल भगत हिंदी कथा जगत की सशक्त कहानीकार हैं। आज के समाज में बदलते
रिश्तों, व्यक्तिमूल्यों एवं अन्य अनेक आधुनिक सामाजिक समस्याओं से आज सभी
कहीं-न-कहीं जूझ रहे हैं। व्यक्ति जीवन पर उसकी छाप भी गहरी पड़ रही है। इन
सबके बीच स्त्री की भूमिका, उसके इर्द-गिर्द घूमती अजीबो-गरीब परिस्थितियाँ
तथा उसके द्वारा उठाए जा रहे कदम या अपने दायित्व के प्रति सजगता आदि को मंजुल
भगत ने अपनी कहानियों में बहुत स्पष्टता से अभिव्यक्त किया है। साथ-ही-साथ
उनकी भाषा ने इस काम में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। एक अच्छे और सफल लेखक की
खूबी यही होती है कि जब वह रचना करता है तो उसकी भाषा उसका सबसे बड़ा साधन
होती है जिससे वह किसी सुंदर रचना का निर्माण करता है। यदि उसकी भाषा अच्छी न
हो और उसे इस्तेमाल करने का सलीका न हो तो रचना ऊबाऊ और बेकार लगने लगती है।
मंजुल भगत जी एक ऐसी लेखिका हैं जिनकी रचनाओं में एक खास तरह की भाषाई सुंदरता
पाई जाती है। उनकी कहानियाँ पढ़ने से एक अलग ही प्रकार का एहसास होने लगता है।
उनकी कहानियों की भाषा में कही-कही पर सुंदर काव्यात्मकता की झलक मिलती है।
कुछ कहानियों की भाषा ऐसी है कि कहानी में अभिव्यक्त समस्या या परिस्थिति के
समान यथार्थ लगने लगती है। किसी परिस्थिति अथवा प्रसंग को अभिव्यक्त करने के
लिए वह जिस प्रकार की शैली का प्रयोग करती है उससे वह प्रसंग अपने-आप ही चित्र
के समान प्रकट हो जाता है।
यदि किसी व्यक्ति विशेष अथवा चरित्र को उजागर करना हो तो भी वे अपनी भाषा को
इस तरह से प्रयोग में लाती है कि वह वर्णन ऊपरी सजावट नहीं बल्कि प्राकृतिक
लगता है। अर्थात पात्र ही जीवंत हो उठता है। व्यंग्यात्मक ढंग से कही गई चीजें
भी अतिरिक्त नहीं लगती हैं। बल्कि ऐसा लगता है जैसे इस तरह के व्यंग्य हमने
अपने ही आस-पास में किसी से सुने हों। उनकी कहानी हमें हँसाती है, कभी गंभीर
बनाती है तो कभी सोचने पर मजबूर करती है। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि
उनकी कहानियों को जो एक बार पढ़ना शुरू कर दे वह पढ़ता ही रहेगा क्योंकि उनकी
रचना सच में इतनी सुंदर है। यह उनकी कहानियों के कुछ अंशों को उदाहरण के रूप
देखने पर ही समझा जा सकता है।
मंजुल भगत की कहानियों में व्यंग्यात्मकता की बात करें तो उनकी 'ब्यूटी सैलून'
तथा 'आत्महत्या से पहले' जैसी कहानियाँ सबसे अच्छे उदाहरण हैं। दोनों ही
कहानियों में हालाँकि आधुनिक जीवन और समाज से जुड़ी गंभीर समस्याएँ अभिव्यक्त
हुई हैं। फिर भी यह कहानियाँ पढ़ने में एकरसता का अनुभव नहीं होता है। बल्कि
इन्हीं व्यंग्यों के कारण ये कहानियाँ रोचक मालूम होती है। इन कहानियों के
पात्र अलग-अलग वर्ग से हैं एवं उनकी परेशानियाँ भी अलग-अलग है। व्यक्तिगत स्तर
पर कभी-कभी लोगों को कितनी ही परेशानियाँ होती है और जरा सोचिए कि ऐसे लोगों
की संख्या यदि समाज में ज्यादा हो तो समाज को कितना नुकसान होता है। लेखिका ने
इसी उद्देश्य से इन कहानियों को लिखा है ताकि पाठकगण इन कहानियों को पढ़कर
समझे कि समाज की आवश्यकता क्या है। दूसरी बात पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी
इन्होंने व्यंग्य का प्रयोग किया है जिससे कि ये पात्र जीवंत हो उठते हैं।
जैसे ब्यूटी सैलून में काम करने वाली लड़कियों तथा वहाँ आने वाली महिलाओं के
जीवन में कई गंभीर समस्याएँ हैं। महिलाएँ अपने पतियों को काबू में रखने के लिए
सुंदर दिखना चाहती है। शरीर के सभी अवयवों को वे सदा चुस्त और सलीकेदार बनाना
चाहती है ताकि उनके पति किसी दूसरी के पास न जा सकें। इसके लिए वे लगातार
ब्यूटी सैलून में आती रहती हैं। इसमें मिसेज बतरा (कहानी की मुख्य पात्र) उनकी
रेगुलर ग्राहक है। उनके केश विन्यास के दौरान ब्यूटी सैलून में काम करती चीची
के मनोभाव को इस प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है - 'मिसेज बतरा के बालों पर
तो अभी 'लेकर' का कलफ भी चढ़ाना होगा। उनके बालों की नोकदार झाड़ियों में तो
वह प्रेमी लहूलुहान हो जाता होगा, सोचकर वह हँस पड़ी।'1 वहीं
ब्यूटी सैलून की चीनी मालकिन अपनी बेटी चीची जो अब अपनी माँ की जगह काम करती
है, उसे बचपन में सैलून की चीजें इस्तेमाल न करने की हिदायत यूँ दिया करती थी
- 'खबरदार, प्रिमरोज, ब्यूटी सैलून में सजी बोतलों में से कभी भी कुछ अपनी खाल
पर मत छुलाना। वह सब खाद-गोबर, बंजर जमीनों के लिए है।'2
इस प्रकार पूरी कहानी में जगह-जगह व्यंग्यात्मक शैली में कुछ-कुछ प्रसंग लिखे
हुए है। हालाँकि कहानी में स्त्री जीवन की कुछ गंभीर समस्याओं को व्यक्त किया
गया है फिर भी इसमें व्यंग्य की आवश्यकता लेखिका ने महसूस की है। ये व्यंग्य
दरअसल पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की सुंदरता के लिए जो घिसे-पिटे मापदंड
हैं उस पर करारी चोट करते हैं। क्या केवल पुरुषों के लिए ही महिलाएँ सजा करती
है, क्या स्त्रियों को स्वयं के लिए सजना-सँवरना कोई मायने नहीं रखता? उसी
प्रकार 'आत्महत्या से पहले' कहानी को ही ले लें तो उसमें भी लेखिका ने
व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है। यह कहानी एक आदमी (विजय सक्सेना) की है
जो अपने जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़-हारकर तीन बार आत्महत्या करने
की कोशिश करता है। परंतु हर बार कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि उसे
आत्महत्या का निर्णय बदलना पड़ता है। यह उसके आत्महत्या के क्षण के पहले ही
घटित होता है।
लेखिका ने इसे बहुत व्यंग्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट कर दिया
है कि चाहे कैसी भी परिस्थिति ही क्यों न हो आत्महत्या कोई सही या अंतिम
विकल्प नहीं है। कहानी की शुरुआत ही लेखिका ने बड़े अलग अंदाज में की है -
'विजय सक्सेना ने जीवन में तीन बार आत्महत्या करनी चाही। तीनों बार कोई न कोई
दिक्कत पैदा हो गई, या यूँ कह लो, कि किस्मत ने ही ध्यान बँटा दिया। पहली बार
जब यह कारनामा सूझा तब हजरत का सिन कुछ सत्रह बरस सात माह का था और सारी
नाराजगी बाप से थी। खुदकुशी की शाम को वह बड़ी तल्लीनता से 'आखिरी खत' की रचना
करने में लगा था। सामने मेज पर उधार का रिवाल्वर पड़ा था। बस, जरा-सी देर में
वह उसे कनपटी पर धर दबा देगा। एक खूनी, हत्यारी मौत, एक खौफनाक धमाका और उसके
बाप का इकलौता बेटा खत्म हो जाएगा। अब रोओ उम्र भर सर पकड़ के! चले थे औलाद पर
तानाशाही करने!3
पूरी कहानी विजय सक्सेना के जीवन के इर्द-गिर्द लिखी हुई है। परिस्थितियाँ भी
प्रतिकूल ही हैं लेकिन फिर भी लेखिका ने पूरी कहानी को बहुत व्यंग्यात्मक ढंग
से प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर आत्महत्या जैसी बेवकूफी के प्रति लोग सच में ही
सोचने पर मजबूर हो सकते हैं कि क्या ये सही है या गलत? जैसे विजय सक्सेना ने
जब दूसरी बार आत्महत्या करनी चाही तो वह ऑफिस में अच्छी पोस्ट न पा सकने के
कारण थी। जिसके लिए वह जी-जान से मेहनत करता है फिर भी उसका कोई सुपरिणाम नहीं
निकलता। निराश होकर वह फिर से उसी निर्णय पर आता है। इस बार वह पत्र अपने पिता
को लिखने के बजाय किसी समाचार-पत्र में देने की सोचता है जिसे लेखिका ने यूँ
अभिव्यक्त किया है - 'इस बार खुदकुशी वाले खत पर उसे खासा परिश्रम करना पड़
रहा था। क्योंकि इस बार खत वह किसी समाचार-पत्र के नाम छोड़कर जा रहा था। वह
पत्र की भाषा प्रांजल और सशक्त बनाने में लगा था और सामने जहर की गोलियाँ और
पानी का भरा गिलास रखा था। उसकी मृत्यु छटपटाती करुणा और मूल व्यथा से भरी
होगी। एक गंभीर, मेच्योर मृत्यु।'4
आत्महत्या के निर्णय को बदलने के लिए किस्मत द्वारा दोनों ही बार ध्यान बँटाए
जाने को भी लेखिका ने बड़ी सहजता से लिखा है। पहली बार में पिता की मृत्यु का
समाचार पाते ही विजय अपना निर्णय बदल देता है तो दूसरी बार एक गुंडे द्वारा
अचानक उसी शाम जब वह दफ्तर के सिस्टम से हारकर मरने जा रहा था, पीटे जाने पर
बदलता है। वह गुंडा उसे सच में मारने आया था लेकिन विजय उससे उलझ पड़ता है। और
जब उसे महसूस होता है तो - 'बदन में दर्द और अकड़ाहट के साथ विजय ने आँखें
खोलीं। समाज के आदमी से इस ठोस रूप की लड़ाई ने उसके अंदर का विद्रोह गटागट पी
लिया था। वह यकायक बहुत खाली महसूस कर रहा था। इस बार तो स्वयं मृत्यु ने ही
आकर उसे आत्महत्या से बचा लिया था। स्वयं भी केवल उसे जख्मी कर लौट गई थी। 5 इससे स्पष्ट होता है कि लेखिका मंजुल भगत न केवल व्यंग्यात्मकता
ही जानती हैं बल्कि कहानी की परिस्थिति के अनुरूप गंभीरता को भी ले आती हैं।
यही कारण है कि इनकी कहानियों को आखिर तक पढ़ने का मन होता है।
मंजुल भगत जी की दूसरी बड़ी खूबी यह है कि वह पात्रानुकूल भाषा तथा उसका परिचय
भी बहुत प्राकृतिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। उनकी कहानियों में स्त्री
पात्रों के चरित्र-चित्रण हों अथवा कोई पात्र केवल क्षण भर के लिए भी कहानी
में आए तब भी उसका परिचय इस प्रकार से कराती हैं कि पात्र के प्रति सहानुभूति
होने लगती है। इनकी सभी स्त्री प्रधान कहानियों में यह विशेषता मिलती है। जैसे
'बुआ जी' कहानी में बुआ जी के बारे में प्रथम परिचय इस प्रकार दिया हुआ है -
'बहुएँ नौकरानी को 'बुआ जी' कहकर पुकारती हैं। जीर्ण-शीर्ण देह, म्लान मुख,
मैली-कुचैली बेकिनार साड़ी में वह दासी बेहद मजलूम मालूम दे रही थी।' 6
इस कहानी में बुआ जी के जीवन की करुण गाथा को लेखिका ने ऐसे अभिव्यक्त किया है
कि सहसा समाज में स्त्रियों के प्रति खुद उसके अपने घर में होने वाले अन्यायों
के प्रति भी क्रोध आने लगता है। बुआ के जीवन के कष्टों को अलग-अलग प्रसंग से
बहुत संक्षिप्त किंतु स्पष्ट हो जाने लायक, व्यक्त किया है। कैसे बुआ जी उस घर
में बेटी बनकर आती है, घर का बेटा ही उसे बहन बनाने के बजाय उसका भोग करता है,
समाज में घर की इज्जत बचाने के लिए उसे बहन और बुआ का दर्जा जरूर मिलता है
लेकिन भीतर कितनी काली सच्चाई छिपी हुई है। कहानी के अंत में लेखिका समाज के
सामने प्रश्न छोड़ देती है कि क्या ऐसा करना उचित है?
इसी प्रकार 'निशा' कहानी की मुख्य पात्र निशा का परिचय इस प्रकार दिया है कि
हँसी और सहानुभूति का मिश्रित अनुभव होने लगता है - 'उसका नाम निशा था। लड़की
खुशकिस्मत थी। स्वयं को वह ऐसा ही समझती थी। बचपन से ही माँ ने उसे,
दुश्चिंताओं से सशंकित, अत्यधिक लाड़-प्यार नहीं दिया। बहनों में उसकी गिनती
चौथे नंबर पर बैठती थी। उसका स्वास्थ्य उत्तम, पाचन-शक्ति लक्कड़-पत्थर हजम और
क्षुधा ऐसी थी कि घास-पात अधकचरा-अधपका जो मिले, सब चलता था। मानो बिना
पानी-खाद के ही वह बेल बढ़ती चली जा रही थी। रूप उसका सामान्य था। घर आए अतिथि
कभी उसकी ओर इतने आकर्षित न हो पाते कि उससे किसी 'परफार्मेंस' का आग्रह करें।
अटपटी फरमाइशें उसकी छोटी, गोरी-गोरी डबल रोटी-से गालों वाली बहन से ही अधिक
की जातीं। जैसे, 'अरे! यह तो बड़ी प्यारी-सी बिटिया है। सुनाना तो हमें, कोई
पोयम आती है?'7 निशा को भी इच्छा होती थी कि वह भी कुछ ऐसा कर डाले
कि सब लोग चौंक जाएँ और उसकी तरफ देखने लगे। लेकिन कहीं-न-कहीं से उसके परिवार
ने ही उसके आत्मविश्वास को कम कर रखा था। लेखिका ने इस कहानी में निशा तथा
उसकी बाकी बहनों के साथ माता-पिता के अलग-अलग व्यवहार को प्रस्तुत किया है।
साथ ही निशा को अपने हारते हुए आत्मविश्वास को जीत में बदलकर आगे आने और अपनी
माँ का सहारा बनते हुए दिखाया है।
अब बात करते हैं उनके कहानी की भाषा में काव्यात्मकता की या फिर यूँ कहिए कि
प्रकृति के किसी साधारण से दृश्य को भी ऐसे प्रस्तुत करना कि कल्पना शक्ति को
ज्यादा मेहनत न करनी पड़े और चित्र अपने-आप आँखों के सामने बनता जाए। 'विधवा
का श्रृंगार' कहानी की शुरुआत में आँगन में लगे पेड़ और उसमें लटक रहे
बोगनबेलिया का वर्णन वह इस प्रकार किया गया है - 'वह लुटा हुआ पेड़ अपनी दोनों
सबल भुजाएँ फैलाए खड़ा था। उस घर के लोगों ने उसकी अन्य तमाम शाखाएँ काट दी
थीं और उस पर दोरंगा बोगनबेलिया लाद दिया था। सफेद और फालसई फूलों से लदा
बोगनबेलिया किसी श्रृंगार-प्रिया यौवना की भाँति उस पेड़ के सीने से सटा,
आत्म-समर्पण कर रहा था। वृक्ष अपनी दोनों भुजाएँ आकाश की ओर उठाए संन्यासी-सा
अटल खड़ा था।'8
यहाँ एक कटे-छँटे पेड़ के बारे में लिखा है लेकिन भाषा ऐसी है कि लगता है कि
कहानी की शुरुआत में उस पेड़ की भूमिका बहुत जरूरी थी। कभी-कभी प्रकृति भी
व्यक्ति के मन के भाव के साथ अपनी छवि बदलते हैं। प्रकृति और मनुष्य का हमेशा
से गहरा संबंध रहा है जिसके कारण साहित्य में हमेशा से ही व्यक्ति मनोभावों को
उजागर करने के लिए उसका सहारा लिया जाता रहा है। वहीं उन्होंने 'पावरोटी और
कटलेट्स' कहानी में भूख और आदमी के संबंध को कुछ इस प्रकार से अभिव्यक्त किया
है - 'भूख! जो कि एक निहायत बदसूरत इनसानी खसाह है और जिसको दिलचस्प बनाने के
लिए इनसान को चटोरी जबान बख्शी गई है, वही भूख बदसूरती और बेसब्री से ऊँचे
उठकर यहाँ एक फन बन गई है। चमकते काँटे की नोक पर, सलीके से निवाला टिकाकर,
जरा-सा मुँह खोलकर, सब्र से मुँह चलाकर लोग बड़ी नजाकत से टुकड़ा खाया करते।
इस वक्त अगर ये लोग सड़क के पार खड़े भूखे बच्चों को खाने की चीज मिलते ही उस
पर एक एमरजेंसी की हालत में झपटते, एक ही कौर में उसे निगलकर, भूख से कुलबुलाई
आँखों से खाने वालों को ताकते देख पाते तो जरूर उनकी तमाम भूख चौपट हो जाती।
मगर वे उस तरफ नजर पड़ने ही नहीं देते थे, या पड़ते ही हटा लेते थे। सर्पीली
सड़क की मुँडेर पर कई कमसिन जोड़े भी हम-आगोश बैठे रहते।'9
कैसी विडंबनात्मक स्थिति है। लेखिका ने यहाँ पर व्यंग्य प्रस्तुत किया है
परंतु यह प्रसंग पाठकों को गंभीर बना देता है। क्योंकि यहाँ लोग अपनी भूख तो
मिटा रहे हैं लेकिन उन्हीं के सामने भूखे बच्चे भी हैं जिन्हें वे देखना नहीं
चाहते हैं। क्या पता ये बच्चे रेस्तराँओं में बैठे लोगों से भीख में खाना न
माँग लें? लोग खाते भी हैं और खाना बर्बाद भी करते हैं लेकिन किसी गरीब भूखे
बच्चे को खाने के लिए कुछ देने में घबराते हैं। यह कहानी हमारे सामने हमारे
चरित्र पर प्रश्न खड़ा करती है कि हम वास्तव में मनुष्य है या केवल अपनी भूख
मिटाने वाले राक्षस?
मंजुल भगत की कहानियों की भाषा में पात्रानुकूलता और क्षेत्रानुकूलता पाई जाती
है। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के अलावा वे राजस्थान तथा दिल्ली आदि क्षेत्र के
लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा का भी संवाद का प्रयोग करती है जिसके कारण
उनकी कहानियों में सजीवता आ जाती है। जैसे 'गुलमोहर के गुच्छे' में फ्रेडरिक
और बारबरा के बीच के संवाद अंग्रेजी में हैं। बारबरा फ्रेडरिक से अंग्रेजी में
कहती है - 'यू आर क्राइंग फॉर सायकेट्रिक हेल्प!'10 तो 'नागपाश'
कहानी में अंग्रेजी लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है जैसे 'अपोजिट पोल्स
अट्रैक्ट ईच-अदर'11। इसी प्रकार कहानी के पात्रों द्वारा बात-बात
में अंग्रेजी के शब्दों का लगातार इस्तेमाल भी उन्होंने बड़ी सहजता से किया है
जिससे उनकी कहानी में अंग्रेजी शब्दों के भरमार दिखायी देती है जैसे स्टूडियस,
पैडेस्टल, स्केच, मॉर्डन सोसाइटी, एक्सप्रैशन, सैलीब्रेट, इम्प्रैशनेबल,
यंगमैन, इमेच्योर, एस्केप, रिफ़ॉर्म, वन-मास्टर्स-डॉग, डिस्ट्रैक्शन आदि।
इसी प्रकार राजस्थानी भाषा तथा दिल्ली क्षेत्र की भाषा के भी उदाहरण दिखते
हैं। जैसे 'बुआ जी' कहानी में बड़ी बहू द्वारा - 'मीठो को घाटो हो गयो के, बुआ
जी'12 तो वही 'नालायक बहू' में दिल्ली में आम लोगों द्वारा बोली
जाने वाली भाषा का प्रयोग किया है जैसे 'हाँs हाँss, तुम ही को मानेगा! सारे
लच्छन नजर आ जाएँगे! सब चरित्तर दिखा देगा'13 इसके अलावा उर्दू
शब्दों का भी भंडार है इनकी कहानियों में जैसे लख्ते-जिगर, हजरत, मजलूम,
खुशकिस्मत, खानाबदोश, जाम, होशोहवास, गुफ्तगू, अलफाज, गैर, खम, कागजात,
हम-आगोश, फन आदि। इस प्रकार हम देख पाते हैं कि मंजुल भगत में भाषा को सुंदर
ढंग से प्रयोग करने की कला बहुत ही परिपक्व है। उनकी सभी कहानियों में
उन्होंने क्लिष्ट भाषा का प्रयोग नहीं किया है जिसके कारण उनकी कहानियाँ आम
पाठकों के लिए सुपाठ्य बन जाती है। ऐसा कहने के पीछे कारण यह है कि आजकल लोग
हिंदी भाषा को सबसे ज्यादा कठिन भाषा समझते है।
वर्तमान युग बाजारवाद तथा भौतिकवाद का है। भूमंडलीकरण का जमाना है, जहाँ लोग
फर्राटेदार अंग्रेजी तो बोल लेते हैं लेकिन अपनी देश की भाषा हिंदी में बात
करने में उन्हें तथाकथित कठिनाई महसूस होने लगती है। इन सब बातों के बीच मंजुल
भगत की कहानियों की एक ओर विशेषता यह भी रही है कि उनकी कहानियों में वे काफी
अच्छा सस्पेंस बनाए रखती है। सबको लगता है कि कहानी में आगे शायद यह होने वाला
है या वह होगा लेकिन जैसे-जैसे आगे कहानी पढ़ते जाते हैं कहानी कुछ ऐसे मोड़
पर आकर खड़ी हो जाती है कि पाठक अंत में अचंभित होकर रह जाता है। 'नालायक बहू'
कहानी कामिनी और शेखर की कहानी है जिसमें लेखिका ने यह दिखाया है कि कामिनी
अपने जीवन में परेशानियों को अकेले ही भुगत रही है। कामिनी को कोई संतान नहीं
है, वहीं शेखर बार-बार नौकरी छोड़ता रहता है, घर में कई बार दोनों के बीच
झगड़े होते रहते हैं। फिर भी कामिनी अपने ससुराल वालों से अच्छा रिश्ता बनाए
रखती है।
जब एक बार शेखर को वह उसके पिता से पैसों के लिए चिट्ठी लिखते हुए पाती है तो
वह खुद घर की बागडोर सँभालने की ठान लेती है। कहानी में कामिनी द्वारा नौकरी
और शेखर का ट्रांजिस्टर बनाने की शुरुआत तथा उसके बिकने तक की कथा लेखिका ने
खूब विस्तृत तरीके से दिखाई है। यहाँ तक कि कामिनी की सास जो अपनी छोटी बहू को
ही सबसे ज्यादा मानती थी क्योंकि छोटी बहू के बच्चा भी था और पैसा भी लेकिन
कामिनी के पास कुछ नहीं था सिवाय घर को चलाने की काबिलियत के, और सास के ताने
वगेरह सब वर्णित किया गया है। कहानी में आगे लगने लगता है कि शायद कामिनी कोई
खुशखबरी दे देगी या फिर शेखर को कोई बड़ी नौकरी मिल जाएगी लेकिन अंत में
कामिनी द्वारा एक बच्चा गोद लेना और वहीं पर आकर उसे समाप्त कर देना काफी
चौंका देता है।
इसी प्रकार उनकी कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जिसमें उन्होंने कोई अनोखा मोड़ या
चमत्कार नहीं दिखाया है। इसीलिए उनकी कहानियों को यथार्थवादी कहा जा सकता है।
व्यक्ति जीवन की समस्याएँ तथा चुनौतियों के साथ-साथ व्यक्ति का अपना चरित्र भी
तय करता है कि क्या वह अपने जीवन में कोई चमत्कार कर सकता है या नहीं या कि
उसे ऐसे ही यथास्थितिवादी बनकर सहता जाएगा। लेखिका ने इसी बात को अपनी
कहानियों में स्पष्ट किया है। उनका कोई भी पात्र न तो कमजोर है ना ही बहुत
अधिक सशक्त। हाँ सभी व्यवहारिक हैं। अपने-अपने जीवन के समस्याओं से वे जितना
उनकी क्षमता है वैसे ही लड़ते है। जैसे 'नागपाश' की शिवा जो प्रशांत से विवाह
करने के बाद प्रशांत की शराब पीने की आदत तथा शिवानी के साथ केवल शारीरिक
संबंध, घरेलू अशांति आदि ने शिवानी में न जाने कहाँ से इतनी ताकत भर दी कि वह
अपने अजन्मे बच्चे को भी इस नागपाश से मुक्त करने के लिए मार देती है। क्योंकि
वह तो ये सब कुछ झेल लेगी लेकिन शायद यह बच्चा न झेल पाए।
कहानी पढ़ते समय ऐसा लगता है कि शायद शिवानी के बच्चा होने वाला है जानकर
प्रशांत में बदलाव आए लेकिन ऐसा नहीं होता है जो कि वास्तविक है। ऐसी घटना
कितने ही परिवार की स्त्रियों के साथ होती रही है। आधुनिक समाज में रहने वाली
स्त्री की समस्या है ये। तो वहीं 'गुलमोहर के गुच्छे' कहानी में सैमुअल और
फ्रेडरिक दो भाइयों की कहानी है जो बचपन में अपनी माँ को प्रतिदिन अपने पिता
से मार खाते देखते थे। दोनों भाइयों की सोच में बहुत अंतर है। सैमुअल के
मुताबिक उसकी माँ कमजोर थी और कभी भी अपने लिए लड़ना नहीं जानती थी। इसलिए वह
अपनी माँ से नफरत भी करता था। वहीं फ्रेडरिक पर बचपन की इस घटना का इतना गहरा
असर पड़ा कि वह बारबरा के प्यार को भी अपना नहीं पा रहा था। शारीरिक पीड़ा के
भय से।
इसी प्रकार उनकी सारी कहानियों में जितनी भी समस्याएँ लेखिका ने दिखाई हैं उन
सबसे लड़ते-जूझते पात्र भी उन्होंने ऐसे ही चुने है जो बिलकुल भी काल्पनिक
नहीं लगते हैं। साथ-ही-साथ उनमें जीवंतता लाने के लिए उन्होंने भाषा का भी
सटीक चयन किया है जिससे कि कहानी और अधिक असली लगती है। यह भी कहा जा सकता है
कि उनकी कहानी उपन्यास का सा आनंद देती है। जैसे हम किसी उपन्यास को अपने जीवन
के समीप मानते हैं उसी प्रकार उनकी सभी कहानियों को पढ़ने से वह भी जीवन के
बिलकुल समीप लगती है। भले ही उनकी कहानियाँ ज्यादा लंबी न हों लेकिन जो
समस्याएँ उन्होंने अपनी अलग-अलग कहानियों में ली हैं वह सभी कहानियाँ भले ही
व्यक्ति जीवन से जुड़ी हों लेकिन सभी समस्याएँ समाज की भी समस्याएँ है।
समाज जो कि अलग-अलग परिवार जैसी छोटी-छोटी इकाइयों से बनता है उन इकाइयों में
यदि केवल ऐसी समस्याएँ भरी पड़ी हों तो फिर समाज की तरफ किसका ध्यान जाएगा।
व्यक्ति जब अपने जीवन की परिस्थितियों एवं समस्याओं से ही लड़ता रह जाएगा और
उससे बाहर भी न निकल पाएगा तो फिर कहाँ से वह समाज के विकास के बारे में सोच
सकेगा। यही कारण है कि अभी तक अखिल विश्व में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ सका है।
पूरी मानव जाति अभी तक संपूर्ण रूप से विकासित नहीं हो पाई है क्योंकि वह अपने
व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं में उलझी हुई है। लेखिका ने जो कहानियाँ लिखी हैं
उसे पढ़ना पाठकों के लिए इसीलिए आवश्यक है ताकि वह इन समस्याओं को समझे तथा
उनसे लड़कर, उनसे जीतकर आगे आ सके। दूसरी बात यह है कि भाषा ही एक मात्र
माध्यम होता है जो एक व्यक्ति के मन को दूसरे व्यक्ति के सामने सही ढंग से खोल
सके अथवा भावनाओं का आदान-प्रदान कर सके जिसमें मंजुल भगत सफल हुई हैं।
संदर्भ
1
.
मंजुल भगत, समग्र कथा साहित्य-संकलन, संपादन - कमल किशोर गोयनका, किताबघर
प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, ब्यूटी सैलून, पृ.सं 157
2
.
वही पृ.सं 158
3
.
वही पृ,सं 107 कहानी - आत्महत्या से पहले
4
.
वही पृ, सं 108
5
.
वही पृ,सं 109
6
.
वही पृ,सं 62 कहानी - बुआ जी
7
.
वही पृ,सं 67 कहानी - निशा
8
.
वही पृ,सं 73 कहानी - विधवा का श्रृंगार
9
.
वही पृ,सं 89 कहानी - पावरोटी और कटलेट्स
10
.
वही पृ,सं. 97 कहानी - गुलमोहर के गुच्छे
11
.
वही पृ,सं 31 कहानी - नागपाश
12
.
वही पृ, सं 62 कहानी - बुआ जी
13
.
वही पृ,सं 54 कहानी - नालायक बहू